श्रीवैष्णव उत्सव

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः

namperumal-garudanश्रीरन्गनातन – गरुड सेवा

[ यहाँ पर हम बात श्रीवैष्णव उत्सव की कर रहे हैं, पर हमारा मार्ग भी सनातन का एक अंग है। हमारी भारतीय सनातन वैदिक परम्परा सदा उत्सव प्रिय रही है। इस सनातन परम्परा में हम १२ महीने , वर्ष के पुरे ३६५  दिन  उत्सव मना सकते हैं। ]

उत्सव याने, दिव्य देश , अभिमान देश , अभिमान स्थल , आळ्वार आचार्य अवतार स्थल और आचार्य स्थल – मठ मंदिर में भगवत भागवत कैंकर्य स्वरुप में , आनंद उल्लास पूर्वक मनाये जाने वाले  आयोजन। इन  [ दिव्य देश , अभिमान देश , अभिमान स्थल , आळ्वार आचार्य अवतार स्थल और आचार्य स्थल – मठ मंदिर ] स्थानों पर , वर्ष भर में कई उत्सवों का आयोजन होता है।

भगवान श्रीमन्नारायण का परत्व  पांच स्वरुप में अभिव्यक्त  है , १. पर , २ व्यूह , ३. विभव , ४. अर्चा और ५. अंतर्यामी.

इसके बारे में हम ज्यादा पोन्नाडि ब्लोग में जान सकते हैं ( http://ponnadi.blogspot.in/2012/10/archavathara-anubhavam-parathvadhi.html ).

भगवान के इन पांच स्वरूपों में अर्चा स्वरुप , भगवान का करुणावरुणालय स्वरुप है। एम्पेरुमान (भगवान) स्वयं अपनी इच्छा से भागवतों के और अपने शरणागत जीव के उद्धार और उनकी इच्छा पूर्ति के लिए , विभिन्न अवतार ले कर , शरणागत की कल्पना के अनुसार स्वरुप धारण कर, अलग अलग स्वरुप में इस धरा पर आकर दिव्य देशों में , अभिमान स्थलों पर  , मठ मंदिरों में विराजमान है। सर्व शक्तिमान , जगत नियंता, जगदाधार इस चराचर जगत के अस्तित्व के कारण होकर भी, अपने स्वयं के प्रभुत्व को बिसराकर , भागवतों के मन को आनंद देने , आल्हादित करने , स्वयं कुछ न कर , अपनी स्वयं की सारी देखभाल ( जैसे उठना, स्नान करना , भोजन प्रसाद पाना और शयन करना  ) की जिम्मेदारी भागवत भक्तो के आधीन देकर रहते है। [ भागवत जब चाहे उठाये , स्नान करवाये या न करवाये, भोग प्रसाद अपनी मर्जी से अर्पण करे, भगवान को सब सहजता से स्वीकार होता है। ] भगवान का यह अर्चा स्वरुप , प्रभु सत्ता की परम अभिव्यक्ति है। इस अर्चा स्वरुप में भगवान श्रीमन्नारायण ,अपनी सत्ता छोड़ , छोटे से छोटे कार्य के लिए भक्तों के आधीन रहते है।

उत्सवों के माध्यम से एम्पेरुमान (भगवान श्रीमन्नारायण) भागवतों पर, इस चराचर जगत के जीव पर अपनी कृपालुता , दयालुता जीवों के प्रति अपनी अपार करुणा का परिचय देते हुए , अपनी सेवा का सुअवसर प्रदान करते है। उत्सवों आयोजन के माध्यम से, भौतिक जगत में, माया के फेर में पड़े इस जीव को, अर्चा स्वरुप में आयोजन का केंद्र बिंदु बन भगवान , प्राणी मात्र को जगत माया से दूर कर अपनी और आकर्षित करते हुये भागवतों को आनंद उल्लास से सरोवर कर , जीव के स्वयं के उत्थान के लिए ,सेवा का अवसर प्रदान कर आध्यात्मिक मार्ग की और अग्रसर करते है। उत्सव मनाने का मुख्य प्रयोजन भी यही  है।

यह लेख श्रीवैष्णव मन्दिरों मैं मनाये जाने वले उत्सवो के बारे में बताता है।

संप्रदाय की मान्यतानुसार  श्रीवैष्णव देवालयों में सारे उत्सव दिव्य प्रबंध परायण और वेद परायण की ध्वनि के साथ आयोजित होने चाहिये। (यह दुख कि बात है के श्रीवैणव देवलयों में धीरे धीरे लुप्त् हो रह है, उत्सवों के दौरान भी यह कम हो गया है) [श्रीवैष्णव मंदिरों में सारे उत्सवों में दिव्यप्रबन्धो के पाठ , वेदों का परायण के साथ यज्ञ , भगवान का अभिषेक , भगवान का विविध स्वरूपों में श्रृंगार कर विभिन्न वाहनों पर आरूढ़ कर , रथ में विराजमान कर , मंदिर की परिक्रमा में, वेद पाठ , प्रबंध पाठ गाते हुये  शोभा यात्रा निकाली जाती है,  गांव या नगर भ्रमण के लिये भी शोभा यात्रा निकाली जाती है।]

[दक्षिणात्य सारे दिव्य देशो और अभिमानस्थल देशो में सभी उत्सव,  दिव्य प्रबंध परायण और वेद परायण के साथ निर्वहन किये जाते है।] कुछ दिव्य देशो के,  कुछ उत्सवों में ४००० दिव्य प्रबंधों का परायण किया  जाता  है। कुछ उत्सवों में सिर्फ तिरुवाईमोळि का ही परायण होता है। भगवान के वाहनारूढ़ हो शोभा यात्रा में इयरप्पा का परायण होता है।

[सम्प्रदाय के वैष्णव मंदिरो  में होने वालो कालोत्सव इस प्रकार है।]

[१. नित्य कैंकर्य, नित्य की सेवाएं ।

२. कालोत्सव (मुख्य वार्षिक उत्सव, अन्य उत्सव) जैसे ब्रह्मोत्सव , वसंतोत्सव , संक्रांत, जन्माष्टमी, रामनवमी , ऐसे अन्य उत्सव) ।

३. श्रद्धा उत्सव या कामयोत्सव ( भक्तो भागवतो की मांग अनुसार मनाये जाने वाले उत्सव) , जैसे कल्याणोत्सव वाहनोत्सव, अभिषेक और अन्य कोई उत्सव , भागवतो की इच्छानुसार , संप्रदाय और मंदिर की मान्यता अनुसार मनाये जाने वाले उत्सव ।

४. निमीत्तोत्सव : जिस पंथ , संप्रदाय का देवालय हो उसकी मान्यता अनुसार शुद्धि उत्सव, पवित्रोत्सव , जीर्णोद्धार शुद्धि पूजा, ग्रहण शुद्धि पूजा।

इन सारे उत्सवों में ब्रह्मोत्सव ही सबसे मुख्य उत्सव है। इस ब्रह्मोत्सव में मंदिर में विराजित मूलवार के,  उत्सव विग्रह को विभिन्न वाहनों पर आरूढ़ कर शोभा यात्रायें निकाली जाती है.। इन उत्सवों में गरूडोत्सव में पेरुमाल को गरुड़वाहन पर आरूढ़ कर शोभा यात्रा और रथोत्सव पेरुमाळ को विशाल रथ में विराजमान कर शोभा यात्रा निकाली जाती है, यह दो उत्सव मुख्य होते है ।]

[ ब्रह्मोत्सव इन मंदिरों में अति विशिष्ट और मुख्य उत्सव होता है। ब्रह्मोत्सव के आयोजन का  हर मंदिर में अलग अलग नियम परम्परा होती है। जो निम्न कारण से हो सकती  है।

१. मंदिर की प्रतिष्ठा का दिवस (प्रतिष्ठा के समय कुम्भाभिषेक का दिवस ) ।

२. मंदिर में शठारी की प्रतिष्ठा का दिवस।

३. मंदिर में स्थापित देव विग्रह के तिरुनक्षत्र पर।

लघु ब्रह्मोत्सव भागवतो की इच्छापूर्ति के लिए भी उनके अनुकूल समय पर किया जा सकता है।

ब्रह्मोत्सव अलग अलग मंदिर में अलग अलग अवधि के मनाये जाते है , मंदिर और स्थान  परम्परा अनुसार ३, ५ , ७ और १० दिन का मनाया जाता है  , बड़े दिव्य देशों में १० दिन का ब्रह्मोत्सव मनाया जाता है।]

  • ब्रह्मोत्सव
    •  सभी वैष्णव मंदिरों में ब्रह्मोत्सव मुख्य उस्तव होता है , यह उत्सव मंदिर में विराजित मूल विग्रह को निर्वहन किया जाता है। मान्यता है की ब्रह्माजी ने इस उत्सव का प्रथम निर्वहन किया था इस कारण  इस उत्सव का नाम ब्रह्मोत्सव पड़ा. और सदियों से इसका निर्वहन होता आ  रहा है। ब्रह्मोत्सव के समय मंदिर में विराजित उत्सव विग्रह को  भगवान के विभिन्न अवतारों के स्वरुप में श्रृंगारित कर मंदिर परिक्रमा में वाहनारूढ़ कर शोभा यात्रा निकाली जाती है, भगवान की यह शोभा यात्रा प्रातः और सायंकाल में निकाली  जाती है।
    • अंकुरार्पण  –  हमारी साधारण भाषा में इसे जवार बोना कहते है,  मिट्टी के पात्र में, पवित्र मिट्टी में पवित्र बीज बोना, यह क्रिया मंगल उत्सव की शुरुआत की मंगल सूचक होती है।.
    • सेनाइ  मुदलियार (विश्वक्सेनजी) की सवारी:  –  उत्सव शुरुआत के एक दिन पहले विश्वक सेनजी की परिक्रमा मार्ग में शोभा यात्रा निकाली जाती है। भगवान की शोभा यात्रा के पहले , विश्वक्सेनजी की इस सवारी का अर्थ यह है , भगवान के सेनापति होने के कारण, विश्वक्सेनजी मार्ग की सुरक्षा जाँच कर आश्वस्त होते है।
    • ध्वजा  आरोहण  – [अंकुरार्पण के बाद गरुड़ स्तम्भ पर गरुड़ध्वजा आरोहण की जाती है , और यह गरुड़ध्वजा , उत्सव पर्यन्त गरुड़स्तम्भ पर रहता है।] उत्सव के पेहला दिन द्वजा आरोहन किय जाता है, जिसके दौराण गरुड द्वजा का आरोहन धवय स्तम्भ में किया जाता है और उत्सव के दौराण गरुड द्वजा धवय स्तम्भ में उडता रेहता है।
    • गरूडोत्सव : यह उत्सव मंदिर जिस प्रान्त में बसा हुआ है , वहां की स्थिति , मान्यता  और और मंदिर की परम्परा , देखते हुए ३, ४ या ५ वे दिन मनाया जाता  है। [जैसे तिरुमला में गरूडोत्सव ५ वे दिन मनाया जाता है।] गरुडाळवार को वेदात्मा याने वेदो की आत्मा मानते है, और भगवान गरुड़जी की सवारी करते है, इस लिए पूर्वाचार्यो ने कहा भगवान श्रीमन्नारायण ही वेदो का उद्देश्य है.  इसी कारण ब्रह्मोत्सव में गरूडोत्सव मुख्य माना गया। दक्षिणात्य दिव्य देशो में, अभिमान देशो में गरूडोत्सव बहुत ही उत्साह से मनाया जाता है।
    • तिरुथेर: रथोत्सवम यह उत्सव मंदिर जिस प्रान्त में बसा हुआ है , वहां की स्थिति , मान्यता  और और मंदिर की परम्परा , देखते हुए  ७, ८, ९ या १० वे दिन मनाया जाता है। संप्रदाय साहित्य में इस उत्सव को  बहुत ही महिमामंडित  किया गया है। संप्रदाय साहित्य में यह बतलाया गया की, रथारूढ़ भगवान श्रीमन्नारायण के , उनके विभिन्न अवतार स्वरूपों के दर्शन करने मात्र से मनुष्य, अपने से किये हुए कई पापो  से मुक्ति पा लेता है। यह उत्सव इस लिए भी खास है की, इसमें पूरा समाज , याने गांव/नगर के सारे वासी भाग ले सकते है, भगवान का रथ को खिंच सकते है. ।
      • कुधिराई: अश्व वाहन की सवारी, इसे दक्षिणात्य भाषा में वेडुपरी  उत्सवम के नाम से भी जानते है।
        • वेडु – दक्षिणात्य भाषा में वेडु का अर्थ है , शिकार करना, / वस्त्र का एक भाग . परी का अर्थ है छीन लेना. यह उत्सव परकाल आळ्वार (तिरुमन्गै आल्ल्वार) पर भगवान श्री रंगनाथजी का पेरिया पिराट्टी के साथ स्वयं जाकर कृपा करने की लीला दर्शाता है, इस को उत्सव रूप में मना कर भगवान श्रीमन्नारायण की कृपा को का यशोगान  किया जाता है।
        • कलियन – तिरुमंगै आळ्वार चतुर्थ वर्ण से थे, सेना नायक थे, अपनी पत्नी को दिए वचनानुसार रोज वैष्णवों को तदीयराधन करवाते थे। इसके कारण उनके सारे खजाने खाली हो गए, तब वह राहगीरी करने लगे।  उस समय उनका नाम कलियन था। भगवान श्रीरंगनाथजी और पराम्बा , जगत जननी माँ पेरिया पिराट्टी नव विवाहित दंपत्ति का स्वरुप बना, अपने अनुचरो के साथ उस राहसे निकलते है, जहाँ कलियन , समृद्ध जनो को लुटते थे। कलियन ने इन्हे भी अपने साथियों के साथ घेर कर , इनसे भी इनके पास से साऱी संपत्ति लूट लिये , पर कहते है की भगवान के अंगूठे में एक स्वर्ण का छल्ला रह गया , काफी कोशिश के बाद भी नहीं निकला तब कलियन ने,  अपने दातों से उसे काटकर निकाला , सारा सामान इकट्ठा कर जब पोटली उठाने लगे , तो वह पोटली उठी नहीं । कलियन ने भगवान से पूछा क्या आपने कोई मन्त्र पढ़ा है, जो यह पोटली उठ नहीं रही, तब भगवान ने कहा हाँ, कलियन ने अपनी तलवार लहराते कहा,  वह मन्त्र बतलाओ। भगवान ने कलियन से कहा ,मन्त्र सब के सामने और जोर से बोलने का नहीं है, नजदीक आओ कान में कहूंगा , कलियन के नजदीक आने पर भगवान श्रीरंगनाथजी ने उन्हें कान में अष्टाक्षर मन्त्र प्रदान किये, बस कलियन यही से परकाल सूरी बन गये। इस उत्सव में भगवान श्रीमन्नारायण की यही लीला बतलायी जाती है ।
      • मत्तेयादी: इस उत्सव का नाम हिंदी में,  प्रणय कलह लीला उत्सव है।
        • दिव्य दम्पति की प्रणय कलह लीला आयोजित होती है, यह लीला श्रीरंगम में पंगुनि उत्तिरम उत्सव में मनाई जाती है। श्रीरंगम के उत्सवों में यह उत्सव बहुत ही खास है। यह उत्सव परकाल लीला के दूसरे दिन सवेरे मनाया जाता है।
        • पेरुमाळ,  जंगली जानवरो से अपने भक्तो की रक्षार्थ  जंगल में जाते है, वहाँ उन जानवरों से भक्तो को बचाते हुये, पेरुमाल को कुछ घाव हो जाते है, जिससे रक्त रिसता  रहता है। पेरुमाल एक आवरण से उन घावों को ढक कर  कोइल को पधारते है।
        • इधर मंदिर में तायर  , पेरुमाल को न पाकर बहुत ही चिंतित होती  है। तायर यह विचार करती है की , पेरुमाळ किसी अन्य नाच्चियार  के पास गये समझकर , अपनी सन्निधि के कपाट बंद कर लेती है। पेरुमाळ बहुत मानते है, साऱी बातें भी बतलाते है ,  पर तायर नहीं मानती, इसे ही प्रणय कलह लीला कहते है ।
        • दिव्य दंपती की इस प्रणय कलह लीला में नम्माळ्वार आळ्वार बीच में आकर दिव्य दंपत्ति को समझाते  है, तब जाकर दिव्य दंपत्ति शांत चित्त होते है।
      • तीर्थवारी: भगवान का अवभृथ स्नान , `यह उत्सव भगवान के मंदिर प्रांगण में स्थित पुष्करणी ,या मंदिर के पास बह रही कोई नदी में संपन्न होता है , अवभृथ स्नान के लिए भगवान , पालकी में सवार होकर पुष्करणी या नदी के किनारे तक जाते है।
      • ध्वजा अवरोहण : ब्रह्मोत्सव समापन के सूचक इस उत्सव में, गरुड़स्तम्भ से ध्वजा अवरोहण के बाद, ध्वजा की आराधना की जाती है ।
      • द्वादश आराधना:  ब्रह्मोत्सव के इस अंतिम दिवस में तोन्डईनाडु दिव्यदेशो में तिरुवाईमोळि का पठन किया जाता है बगेर किसी भी विराम के. प्रातः कालीन उत्सव में ,कुछ दिव्य देशों में पूरी सहस्त्रगीति  का गायन होता है। कुछ दिव्य देशों में विराजित पेरुमाळ को द्वादश तिरुआराधना , पुष्प याग के साथ संपन्न की जाती है। कुछ दिव्य देशों में , सहस्त्रगीति के परायण के साथ , आळ्वार , आचार्यों की सन्निधि में पेरुमाळ का अभिषेक किया जाता है।
      • सप्तावरण  – ब्रह्मोत्सव के अंतिम दिवस सायंकाल,   पेरुमाळ तायर समेत छोटे रथ में विराजमान हो मंदिर परिक्रमा में/ नगर भ्रमण करते है । इस परिक्रमा में बाद रामानुज नूट्रानतूदी गोष्ठी होती है इयल गोष्ठी होती है, सत्तूमुराई का पाठ होता है। शोभा यात्रा मंदिर पहुँचने के बाद , मंदिर में विराजे सभी देवता , ऋषि, पूर्वाचार्यों, श्रीवैष्णवों को विदाई दी जाती है (अर्चक वेदोक्त मंत्रो से विदाई देते है) । तत्पश्चात मुख्य उत्सव निर्वहन कर्ता को परम्परानुसार पेरुमाळ से बहुमान करवाया जाता है।
      • विदयार्री  (शांति) – उत्सव के बाद कुछ समय तक पेरुमाळ विश्राम करते है। इस विश्राम काल में भगवान सिर्फ अभिषेक और दिव्यप्रबन्ध पाठ श्रवण करते है।
  • तेप्पोत्सव – तेप्पोत्सव उत्सव – मंदिर की पुष्करणी या मंदिर के निकट बह रही नदी मै मनाया जाता है। इस उत्सव में पेरुमाळ तायर समेत पालकी में सवार हो पुष्करणी पर जाते है , वहाँ पेरुमाळ और तायर सुसज्जित नाव में विराजकर पुष्करणी के मध्य मंडप के चहुँ और विहार करते है ।
  • पल्लव उत्सव – यह उत्सव वसंत ऋतु में मनाया जाता है , इस उत्सव में पेरुमाळ आखेट पर जाते है। कई मंदिरों में पेरुमाळ इस उत्सव में स्थलपुराण का श्रवण करते है।
  • वसंतोत्सव – इस उत्सव में पेरुमाळ मंदिर परिसर , या मंदिर परिसर  के नज़दीक स्थित उद्यान के मंडप में कुछ समय विराजते है । वहाँ मंडप में पेरुमाळ  का अभिषेक संपन्न किया जाता है, तिरुआराधना की जाती है, पेरुमाळ पालकी पर आरूढ़ हो उद्यान में विहार करते है।
  • कोडाई  उत्सव – यह उत्सव ग्रीष्म ऋतु में मनाया जाता है। इस उत्सव में पेरुमाळ की शोभा यात्रा मंडप तक पधारती है, वहाँ पेरुमाळ का अभिषेक होता है, तिरुआराधना संपन्न की जाती है , और मंदिर परंपरा अनुसार अन्य उपचार संपन्न होते है।
  • श्री राम  नवमी – पेरुमाळ श्री रामजी का आविर्भावोत्सव ९ दिनों तक मनाया जाता है , पेरुमाळ की शोभा यात्रा मंदिर परिक्रमा में निकलती है।
  • पवित्रोत्सव – मंदिर की पूजा अर्चना के लिये पालनीय पांचरात्र या  वैखानस आगम के सिद्धान्तानुसार, मंदिर के कार्य संपन्न करने में हुयी त्रुटियों, की पूर्ति हेतु पवित्रोत्सव संपन्न किया जाता है। मंदिर में यज्ञ शाला पर पेरुमाळ तायर समेत पधारते है। अभिषेक संपन्न होता है। पेरुमाळ दिव्यप्रबन्ध और वेद परायण पाठ श्रवण करते है। यह उत्सव मंदिर और स्थान की परम्परानुसार ३, ५ और ७ दिनों का मनाया जाता है ।
  • आनि (ज्येष्ठा मास ) गरूडोत्सव – पेरिया आळ्वार के तिरुनक्षत्र के दिन यानि ज्येष्ठा मास के स्वाति नक्षत्र के दिन यह उत्सव मनाया जाता है। पेरिया आळ्वार द्वारा पंड्या राजा के दरबार में शास्त्रार्थ भगवान नारायण के परत्व और सत्ता स्थापित करने पर , भगवान श्रीमन्नारायण , लक्ष्मीजी समेत गरुडारुढ़ आकर पेरिया आळ्वार को दर्शन दे अपना आशीर्वचन प्रसाद किये थे। संप्रदाय में पेरिया आळ्वार पर भगवान की करुणा को उत्सव रूप में मनाने , ज्येष्ठा मास के स्वाति नक्षत्र के दिन पेरुमाळ को गरुड़वाहन पर विराजमान कर शोभा यात्रा निकली जाती है।
  • ज्येष्ठाभिषेक – इस उत्सव में भगवान को निजरूप में अभिषेक होता है। सायंकाल में भगवान श्रृंगार धारणकर तिरुआराधना स्वीकार करते है, ज्येष्ठाभिषेक के बाद से के संपन्न होने तक पेरुमाळ  फिर कोई शोभा यात्रा में नहीं निकलती।
  • आडि पौर्णमी गरूडोत्सव – गजेंद्र मोक्ष का उत्सव मनाया जाता है  – अक्सर यह उत्सव और यजुर उपकर्म उत्सव एक ही दिन आते है।
  • श्री जयंती  – जन्माष्टमी – ( भगवान कृष्ण का आविर्भाव दिवस) आगम और मंदिर की  परम्परा अनुसार , रोहिणी नक्षत्र , भाद्रपद मास , कृष्णपक्ष ,अष्टमी तिथि , सायंकाल से उत्सव की शुरुआत होती है, और अर्ध रात्रि को आविर्भवोत्सव मनाया जाता है। दूसरे दिन नंदोत्सव मनाया जाता है ।
  • नवरात्रि – ९ दिन मनाई जाती है  – इन ९ दिनों में तायर का अभिषेक संपन्न होता है। मंदिर में परिक्रमा / नगर में  शोभा यात्रा , निकाली जाती है। सायंकाल उँजल सेवा संपन्न की जाती है।
  • विजय  दशमी – पार्वेट्टै – पेरुमाळ इस दिन आखेट पर जाते है।
  • दीपावली – पेरुमाळ और तायर की शोभा यात्रा निकाली जाती है , अक्सर यह उत्सव मामुनिगळ उत्सव के साथ ही संपन्न होता है।
  • कार्तिक  दीपम  – कार्तिक पूर्णिमा: – अनध्ययन काल की शुरुआत इसी दिन से होती है।
    • इस दिन मंदिर की साऱी सन्निधियों में दीप प्रज्वलित किये जाते है, मंदिर में, मंदिर परिसर को दीपमाला से  श्रृंगारित करते है। श्रीरंगम और कई अन्य दिव्य देशो में , भगवान की सवारी के सामने सूखे घांस के ढेर को जलाया जाता है।.

[वैकुण्ठ एकादशी

इस दिन पेरुमाळ को गरुड़वाहन पर विराजमानकर उत्तर द्वार से प्रवेश करवाते है , पेरुमाळ वैकुण्ठ मंडप में विराजमान हो सभी को दर्शन दे जीव को कृतार्थ करते है।।]

आळ्वार  / आचार्य तिरुनक्षत्र

आळ्वार आचार्य तिरुनक्षत्र  याने आळ्वार संतो का प्रकाट्य दिवस , आळ्वार आचार्य जन्मदिवस के उत्सव मनाना , दिव्य देशों में आळ्वार आचार्यों का तिरुनक्षत्र , त्यौहार की तरह बड़े ही वैभव पूर्ण रूप में मनाया जाता है।

जैसे नम्माळ्वार आळ्वार का वैकासी विशाखम , भगवद रामानुज स्वामीजी का चित्तरइ तिरुवाधिरै और मणवाळ मामुनिगळ का आईपासी तिरुमुलम , यह तीनो उत्सव १० दिवस के मनाये जाते है। यह उत्सव मंदिर मे इनकी निज सन्निधि के सम्मुख मंडप में मनाये जाते है।

आळ्वार आचार्य के अवतार स्थल पर, उत्सव के अंतिम दिवस भगवान मंडप पर उत्सव में पधारते है , साथ ही उस स्थल के आळ्वार आचार्य भी मंडप पर पधारते है । [भगवद और आचार्यों के मुखोल्लास हेतु , मनाये जाने वाले उत्सवों की , एक और सार्थकता है की, इन उत्सवों के माध्यम से हम सभी वैष्णवों और भगवद भक्तो को एक स्थान पर एकत्रित कर भगवद कैंकर्य करवा सकते है।] उदरण के तोर पे आल्लवार तिरुनगरि में नम्माल्लवार उपस्त्ति होते हैं अन्य अल्लवार और आचर्यो के तिरुनक्षत्र पर इसि तराह श्रीपेरंम्भुदुर में श्री रामानुज स्वामि उपस्त्ति होते हैं अन्य अल्लवार और आचर्यो के तिरुनक्षत्र पर।

जैसा के शुरुवात में बताया गया है, इन उत्सवो का बहुत महत्व है, इन उत्सवो का लक्ष्य यह है के इनके माध्यम से सभी श्री वैष्णव और अन्य भगतों को साथ मिलकर कैंकर्य करने का मौका मिले। तो आइए हम सब मिलकर निस्सवार्थ कैंकर्य करें।

वैष्णवों द्वारा घर में मनाये जाने वाले उत्सव

मनाये जाने वाले उत्सव , वैष्णव अपने घर में नहीं मना  सकते, पर घर में भी ठाकुरजी के मुखोल्लास हेतु कुछ उत्सव मनाये जाते है जैसे श्री जयंती, श्रीराम नवमी, नव वर्ष प्रवेश (उगादी), मकर संक्रांति , दीपावली,  कार्तिक पूर्णिमा , नृसिंह जयंती, वामन जयंती , वैकुण्ठ एकादशी ,आळ्वार आचार्य तिरुनक्षत्र ।

श्री जयंती, जन्माष्टमी

  • जन्माष्टमी का उत्सव सायंकाल बेला में मनाया जाता है।
  • इस दिन वैष्णव अपनी अपनी श्रद्धा अनुसार व्रत रखते है।
  • लल्ला के लिये विविध प्रकार के मिष्ठान्न बनाते है ।
  • सायंकाल में घर में ठाकुरबाड़ी में विराजित लल्ला को अभिषेक कर , नव वस्त्र आभूषणों से नवशृंगार कर तिरुआराधना करते है। पेरिया आळ्वार द्वारा अपनी पेरिया तिरुवोईमौलि में वर्णित भगवान कृष्ण के प्राकट्य के प्रबंध पाशुर का गायन करते है। भगवान को विविध प्रकार के मिष्ठान्न , व्यंजन भोग प्रसाद में अर्पण किये जाते है अर्ध रात्रि में प्राकट्य के बाद भगवान की आरती उतरी जाती है, अर्चना संपन्न की जाती है।

श्रीराम नवमी (श्री राम का जन्मदिन)

  • यह उत्सव आमतौर पर सुबह के समय मनाया जाता है।
  • भगवान का अभिषेक कर नव वस्त्राभूषणों से श्रृंगार कर , विस्तृत तिरुआराधना की जाती है। दिव्य प्रबंधों में पेरुमाळ तिरुमोळि का गायन किया जाता है । पेरियावाचन पिल्लै स्वामीजी की पासुरापाड़ी रामायण का पठन किया जाता है। भगवान को नैवैद्य अर्पण कर, [मध्यान्ह १२ बजे प्राकट्य आरती की जाती है]। तत्पश्चात अर्चना की जाती है,  यह उत्सव ग्रीष्म ऋतु में आता है इसलिए नैवैद्य में [पायसम] पांगम , छाछ (निरमोर), दाल वडा का भी नैवैद्य अर्पण करते हैं।

वरुशा प्रवेशम, मकर सन्क्रान्ति (पोंगल), दिपावलि, कारतिगै दिपम जैसे उत्सवो को विस्तृत तिरुवारादनम, दिव्यप्रब्नद गायन अथ्वा विशेष भोजन तैयार करके मनाना चाहिए

[अन्य वर्णित त्यौहार भी बड़े उत्साह से , ठाकुरजी का अभिषेक, श्रृंगार कर, नैवैद्य अर्पणकर , तिरुआराधना के साथ प्रबंध पठन और गायन के साथ संपन्न करना चाहिये।]

आल्वार  / आचार्य तिरुनक्श्त्र (जन्मदिन)

  • यह उत्सव आमतौर पर सुबह के समय मनाया जाता है।
  • विस्तृत तिरुआराधना की जाती है।
  • दिव्यप्रब्नद गायन (http://divyaprabandham.koyil.org/)
    • आल्वारों के लिए – स्वप्रबन्द (वह जो उन्हि आल्व्वार दुवारा संकलित है) का पठन/गायन करना चाहिए। उदाहरण के लिए – मुदल तिरुवनधाधि पोइगै आल्व्वार के लिए और इरन्डाम तिरुवनधाधि भुदत्त आल्व्वार के लिए।
    • आचार्यो के लिए – स्वप्रबन्द अगर वोह उपल्भद है।  गध्यत्रयम एम्पेरुमानार के लिए, पन्चस्तवम श्री कुर्रत्ताल्वान कि लिए, तिरुवाइमोळि नुत्रनधादि श्री मामुनि के लिए।अगर ये कुछ उप्लब्द नहि है तो हम बस दिव्यप्रबन्द तक पठन कर सकते हैं।
  • वलि तिरुनाम्म (https://guruparamparai.wordpress.com/vazhi-thirunamams/) – जो के साट्ट्रुमुरै के अन्त में उन्ह आल्वार का (जिनका जन्मदिन है) पठन करना चाहिए।
  • दिन के दौरान आल्वार /आचार्य दुवारा लिखि गई (संकर्म) को पडना और घर के सदस्यो से उसके बारे में चर्चा कर सकते हैं।

ध्यान दें – घरों में प्रातः दिव्यप्रब्नद का गायन करना चाहिए। (कम से कम) तिरुपल्लान्डु, तिरुपल्लियेळुच्चि, तिरुप्पावै, अमलनादिपिराण, कन्निनुमचिरुताम्बु, कोइल तिरुवाइमोळि (जो भी संभव हो) रामानुसा नुट्ट्रन्दादि और उपदेष रत्तिनमालई का गायन करना चाहिए।

अडियेन् श्याम्सुन्दर् रामानुज दासन्

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